09 April, 2013

‘बेवफा बीवी को माफ करने की सजा’

“बाप का कत्ल कर दिया गया और उसके कत्ल के इल्जाम में मां जेल पहुंच गई। मुकदमा चला और मां पर इल्जाम सिद्ध हुआ, उसे आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई। पीछे उन दोनों का इकलौता बच्चा मां-बाप के कर्मों की सजा भुगतने को मजबूर है। बाप का गुनाह इतना था कि वह अपनी पत्नी के बहकते कदमों पर अंकुश न लगा सका, मां का कसूर यह था कि बेलगाम घोड़ी की तरह इधर-उधर जिस-तिस की बांहों में उछलती फिरती थी, मगर बेटे का क्या कसूर था?”
प्रतीक चित्र
आज इस कथा को लिखते वक्त बरबस ही मुझे संस्कृत का एक श्लोक बार-बार याद आ रहा है, ‘त्रियाचरित्र पुरुषोस्य भाग्यं दैवो न जानयति कुतो मनुष्य।अर्थात औरत का चरित्र और पुरुष के भाग्य का अंदाजा तो ईश्वर भी नहीं लगा सकते, फिर मनुष्य की बिसात ही क्या है? कदाचित औरत ही इस सृष्टि में एकमात्र वह प्राणी है जो एक ही वक्त में दिन और रात दोनों का आनंद उठाने की सोच सकती है। वह चाह सकती है लड्डू उसके हाथ में बना भी रहे और वह खा भी ले। वह एक ही वक्त में गाल फुलाना और हंसना दोनों कार्य करना चाहती है। कहने का तात्पर्य यह है कि औरत कुछ भी चाह सकती है, औरत कुछ भी कर सकती है।
उपरोक्त भाव ही इस कथा का सार तत्व है। इस पूरी कथा का केन्द्रिय चरित्रा है शुक्ला सरकार। शुक्ला मूलतः पश्चिम बंगाल के कोलकाता जिले के उत्तरपाड़ा इलाक की रहने वाली है। साधारण परिवार में पली-बढ़ी शुक्ला को न सिर्फ अपने परिवेश से नफरत थी, बल्कि वह गरीबी को भी अभिशाप समझती थी, लिहाजा होश संभालने के बाद से ही उसने सतरंगी सपनों में खुद को डुबाकर रख दिया था। सपनो में जीने की वह कुछ यूं अभ्यस्त हुई कि गुजरते वक्त के साथ उसने हकीकत को पूरी तरह नकार दिया। हकीकत क्या थी? यह वह जानना ही नहीं चाहती थी, मगर उसके परिजन भला सच्चाई से कैसे मुंह मोड़ लेते। उन्हें तो अपनी हैसीयत का अंदाजा था, जैसे-तैसे वे मेहनत करके अपने परिवार का गुजारा कर रहे थे। बेटी उनके लिए बोझ भले ही न रही हो, मगर उसकी बढ़ती उम्र के साथ-साथ उनकी चिन्ता बढ़ती जा रही थी।
शुक्ला अब तक 15 साल की हो चुकी थी, गेहूंआ रंग, छरहरी काया और बड़ी-बड़ी आंखें। कुल मिलाकर वह आकर्षक युवती कही जा सकती थी। वैसे भी मुहल्ले में उसके मुकाबले कोई दूसरी लड़की नहीं थी। अतः मुहल्ले के तमाम लड़कों के आकर्षण का केन्द्र थी। वहां सभी उसका सामिप्य हासिल करना चाहते थे, या यूं कहे की उसके नजदीक आने को मरे जा रहे थे। हालत ये थी कि वह जिससे भी मुस्कराकर दो बातें कर लेती, अगले दिन वही उसके आगे-पीछे घूमना शुरू कर देता।
लड़कों को अपने आगे-पीछे चक्कर लगाते देखकर उसे बेहद खुशी मिलती थी। सुकून हासिल होता था या शायद उसके इस अहम को संतुष्टि मिलती थी कि वह बहुत खूबसूरत है। बात चाहे जो भी रही हो, मगर उसका गरूर बढ़ता जा रहा था, कदम जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। वह तो अब खुले आसमान में मुक्त भाव से विचरना चाहती थी। ऐसे में वह कब तक अपने आप को बचाकर रख सकती थी। एक बार उसके कदम फिसले तो बस फिसलते ही चले गए।
अभियुक्ता शुक्ला सरकार
बेटी के अवैध संबंधों की खबर मां-बाप को लगी तो उनके कदमों के नीचे से जैसे जमीन ही खिसक गई। उन्होंने पहले तो समझा-बुझा व डांट-फटकार रास्ते पर लाने का प्रयास किया, लेकिन जब उसके सुधरने के लक्षण नहीं दिखाई पड़े तो घरवालों ने आनन-फानन में उसकी शादी करके अपनी इज्जत बचा ली, यानि अपनी परेशानी समीर के गले मढ़ दी।
समीर सरकार सोने-चांदी के आभूषण बनाने में निपुण कारीगर था और जमशेदपुर स्थित गोलमुरी इलाके में स्वागत होटल के बगल में स्थित अपने चचेरे भाई मिहिर कुमार की दुकान सुभद्रा ज्वेलर्स में काम करता था। शुक्ला से विवाह के बाद कुछ दिनों तो ठीक-ठाक बीता, इसी बीच शुक्ला एक बेटे अभिषेक की मां बन गई तो समीर सरकार खुशी से फूले नहीं समाए।
उन दिनों सरकार पत्नी और बेटे के साथ सीताराम डेरा स्थित बंगाली काॅलोनी में किराए के मकान में रहते थे। वह सवेरे दुकान पर जाते तो लौटते-लौटते रात हो जाती थी। ऐसे में मनमानी करने के लिए अवसर की कमी नहीं थी। ऊपर से रूप-यौवन से सम्पन्न शुक्ला की देहयष्टि इतनी आकर्षक थी कि किसी को भी पहली ही नजर मंे लुभा लेती थी। बताते है कि इस मौके का लाभ उठाकर शुक्ला ने जल्दी ही एक युवक से संबंध बना लिए और वासना का खेल खेलने लगी।
कहते हैं पाप कितना भी छुपाकर किया जाए उजागर हो ही जाता है। शुक्ला के साथ भी ऐसा ही हुआ। बताते है एक दिन वह अपने प्रेमी के साथ कमरे में पड़ी ‘ब्लू फिल्म देख रही थी, तभी मकान-मालिक की नजर पड़ गई। फिर मामला इतना बढ़ा कि दो दिन बाद ही समीर सरकार को वह घर छोड़ देना पड़ा था। इसके बाद समीर सरकार ने गोलमुरी इलाके के रामदेव बगान में किराए का कमरा लिया।
समीर सरकार बहुत ही शान्त और धीर-गंभीर स्वभाव के होने के बावजूद पत्नी की करतूत से बेहद क्षुब्ध थे और उसे कड़े शब्दों में चेतावनी भी दी थी, लेकिन शुक्ला अपनी ही धुन में मगन रही। उसने रामदेव बगान में भी एक युवक के साथ अवैध संबंध स्थापित कर लिया और चोरी-छिपे दोनों रंगरेलियां मनाने लगे।
कुछ समय तक सब कुछ गुपचुप चलता रहा, लेकिन धीरे-धीरे लोगों की आंखों में उन दोनों के संबंध खटकने लगे, तो फुसफुसाहटें शुरू हो गईं। आखिर समीर सरकार को पता चला तो उन्होंने फिर घर बदलने का फैसला कर लिया। शुक्ला ने इसका विरोध किया तो पति-पत्नी में झगड़े शुरू हो गये। इस पर शुक्ला ने एक नई शर्ते लगा दी। कहने लगी, “मैं रोज-रोज किराए का घर नहीं बदलूंगी, अगर तुम इस इलाके को छोड़ना ही चाहते हो तो ठीक है। अपना घर बनवा लो, मैं खुशी-खुशी चल पडूगी... “
यद्यपि उस समय समीर सरकार के पास इतने रुपए नहीं थे कि तुरन्त अपना घर बनवा लेते, लेकिन पत्नी की करतूतों के कारण रामदेव बगान में मुंह दिखाना मुश्किल हो रहा था, इसलिए उन्होंने जैसे-तैसे रुपयों का इंतजाम करके करीब सात साल पहले विरसा नगर जोन नम्बर-8 में एक प्लाट खरीद कर मकान बनवाना शुरू कर दिया। उस समय उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि वहां पार्थो बनर्जी उनके लिए मुसीबत बन जाएगा।
हत्या आरोपी पार्थो बनर्जी
(साक्ष्य के अभाव में रीहाई मिली)
विरसानगर के ही जोन नम्बर-3 में रहने वाला पार्थों बनर्जी बिजली का काम करता था। समीर, बनर्जी को बंगाली होने के अपनेपन में ही उसे अपने घर में वायरिंग करने का काम सौंप दिया था। वह स्वयं तो दिन भर दुकान पर रहते थे, इसलिए मकान में हो रहे काम की देख-रेख करने के लिए शुक्ला ही आया करती थी। वहीं पार्थो बनर्जी से उसकी पहली मुलाकात हुई थी।
पार्थों हमेशा बड़े ठाट-बाट से रहता और मोटर साइकिल पर चला करता था। उसके हाव-भाव से प्रभावित होकर शुक्ला ने तुरन्त ही उससे परिचय बढ़ाना शुरू कर दिया। उस समय तक पार्थो की शादी हो चुकी थी। फिर भी शुक्ला की शह पाकर वह शुक्ला का दीवाना हो गया।
मकान बनकर तैयार हो गया तो समीर परिवार के साथ उसमे रहने लगे, लेकिन यहां भी समीर को चैन नहीं मिला। अब पार्थो का आना-जाना शुरू हो गया था। बताया जाता है कि समीर सरकार की अनुपस्थिति में वह अक्सर आ जाता। शुक्ला उसे देखते ही खिल उठती और दरवाजा बंद करके दोनों लम्बे समय तक एकान्त में पड़े रहते। फिर उन दोनों को वक्त-बेवक्त मोटरसाइकिल पर भी घूमते देखा जाने लगा तो धीरे-धीरे पूरे इलाके में उनके सम्बन्धों को लेकर चर्चा होने लगी। समीर सरकार को यह सब पता चला तो वह बौखला उठे और घर में फिर रोज लड़ाई-झगड़ा होने लगा। मजबूरी यह थी कि अब तो वह घर भी नहीं बदल सकते थे। आखिर टूट कर समीर सरकार ने शराब पीनी शुरू कर दी। उसी नशे में कभी-कभी वह शुक्ला को पीट भी देते थे।
समीर सरकार ने कई बार पार्थों को भी कड़े शब्दों में अपने घर आने से मना कर दिया था। इसी सिलसिले में दो-एक बार दोनों में मारपीट भी हो चुकी थी, इसके बावजूद पार्थो और शुक्ला का सम्बन्ध बना रहा तो तंग आकर समीर सरकार ने एक पंचायत भी बैठाई, जिसमें उनके और पार्थो के परिजनों के साथ-साथ इलाके के भी तमाम लोग शामिल हुए थे। वहां पार्थों को बुलाकर उसकी लानत-मलामत की जाने लगी तो लोगों का रुख देखकर उसने माफी मांग लेने में ही भलाई समझी। यहीं नहीं उसने कसम भी खा ली कि भविष्य में कभी भी समीर सरकार के यहां नहीं जाएगा और न शुक्ला सरकार से मिलेगा।
आश्वासन के बाद दिखावे के लिए दोनों कुछ दिन परस्पर कटे-कटे भी रहे, लेकिन उन्होंने फिर मिलना-जुलना शुरू कर दिया तो समीर सरकार ने अपना मकान बेचकर कहीं और चले जाने का फैसला कर लिया।
मगर होनी तो बस होकर ही रहती है। 19 अक्टूबर 2006 को एकदम सवेरे-सवेरे ही समीर सरकार की मौत की खबर सुनकर समीर सरकार के घर पर अड़ोसी-पड़ोसी के साथ-साथ मोहल्ले के काफी लोग जुट आये, उन्हीं में से पता नहीं, किसने फोन करके पुलिस कंट्रोल रूम के डी.एस.पी.संगीता कुमारी को बिरसानगर थाना क्षेत्र में समीर की मौत के संदेहास्पद होने की खबर दे दी। उन्होंने तत्काल संबंधित थाने को इसकी जानकारी दे दी।
बिरसा नगर थाना प्रभारी जयराम प्रसाद जब घटना की जानकारी मिली उस समय सुबह के लगभग 10 बज रहे थे, आनन-फानन में वह अपने दलबल के साथ घटनास्थल पर पहुंच गये। अंदर पहुंचकर उन्होंने देखा समीर सरकार का शव अभी तक बिस्तर पर ही पड़ा था।
थाना प्रभारी जयराम प्रसाद ने बड़ी मुश्किल से पति के शव से लिपट कर रोती शुक्ला सरकार को धैर्य बंधाते हुए थोड़ा अलग हटाया तो मृतक के मुंह तथा नाक-कान से खून निकला देखते ही समझ गए कि यह हत्या का मामला है। उन्होंने ध्यान से शव का निरीक्षण किया तो स्पष्ट हो गया कि समीर सरकार को गला घोंटकर मारा गया था। फिर पूछताछ शुरू करते हुए शुक्ला सरकार से पूछा, “यह वारदात कब हुई?”
मृतक समीर सरकार: बेवफा बीवी को कदम
-कदम पर माफ किया, यही उसका कसूर था
“मैं क्या बताऊं साहब...?” शुक्ला चौककर सिसक उठी, “रात में सब गहरी नींद सो रहे थे, तब किसी वक्त...।”
“तुम्हें कब पता चला?”
शुक्ला जोर से सांस लेकर बताने लगी कि समीर को बेड-टी लेने की आदत थी। रोज की तरह आज सवेरे भी वह चाय का प्याला लेकर पति को जगाने गई, पर कई आवाज देने और हिलाने-डुलाने पर भी वह नहीं उठे, परेशान होकर उसने अपने बेटे आशीष से एक पड़ोसी को बुलवा कर सारी बात बताई। फिर पड़ोसी ने ही अंदर आकर देखने की बाद बताया कि समीर की तो मौत हो चुकी थी।
“ताज्जुब है...” थाना प्रभारी जयराम प्रसाद ने हैरानी से कहा, “बदन और नाक-मुंह से खून निकलता देखकर भी तुम्हें कुछ पता नहीं चला...।”
“मैं उस समय बहुत घबरा गयी थी, साहब।” शुक्ला एक पल रुकी, फिर होंठों पर जुबान फेरकर कहने लगी, “दरअसल वह शराब बहुत पीते थे, इसलिए मैंने समझा था कि...।”
“तुम्हारे पति की गला दबा कर हत्या की गयी है। दम घुटने की वजह से ही नाक, कान और मुंह से खून उबल आया...।” थाना प्रभारी जयराम ने शुक्ला की ओर देखते हुए पूछा, “तुम्हें किसी पर शक है?”
“नहीं...नहीं, साहब... भला कोई उनकी हत्या क्यों करेगा...”
“झूठ बोल रही है यह औरत...” सहसा भीड़ को चीरता हुआ एक व्यक्ति आगे आकर चिल्ला पड़ा, “इसको अच्छी तरह मालूम है कि क्यों हत्या की गयी और यह भी जानती है कि हत्या किसने की है?”
थानाप्रभारी जयराम प्रसाद ने आगंतुक की ओर देखते हुए पूछा, “तुम कौन...?”
“मैं मृतक का भाई मनीष सरकार हूं, साहब।” उसने खा जाने वाली आंखों से शुक्ला को घूरते हुए कहा, “सच्ची बात यह है इंस्पेक्टर साहब, कि अपने प्रेमी पार्थो बनर्जी की मदद से इसी डायन ने मेरे भाई को मार डाला... यह औरत नहीं वेश्या है... आपको मेरी बात पर विश्वास न हो तो मोहल्ले भर के लोगों से पूछ लीजिए...।”
“पार्थो कौन है?”
“इसी इलाके के जोन नम्बर-3 में रहता है... कौन नहीं जाता कि उसके साथ चार साल से इस औरत का नाजायज सम्बन्ध है... मेरे भाई को पता चला तो वह रोक-टोक करने लगा, बस इसीलिए इन दोनों ने मिलकर उसकी जान ले ली...।”
पुलिस को दिए अपने बयान में उन्होंने बताया कि एक दिन रात में दुकान से लौटते समय समीर उनके यहां आया, कुछ हाल-चाल के बाद बात आगे बढ़ी तब समीर ने बातों-ही-बातों में उनसे बताया कि शुक्ला और पार्थो मेरी हत्या भी करवा सकते हैं, सोच रहा हूं कि थाने जाकर इस बारे में एक शिकायत दर्ज करवा दूं।
शुक्ला व समीर सरकार का बेटा आशीष:
अब कौन होगा पालन हार
एक सूत्र हाथ में आते ही थाना प्रभारी जयराम प्रसाद सक्रिय हो उठे। उन्होंने तत्परता से पार्थो का पता लगाकर उसे पकड़ने के साथ ही शुक्ला को भी हिरासत में ले लिया तो वह एकदम चीखने-चिल्लाने लगी, “यह अन्नाय है, साहब... एक तो मेरे पति की हत्या हो गयी, दूसरे आप मुझे ही गिरफ्तार कर रहे हंै। इस आदमी ने अपने को मेरे पति का भाई बता दिया इसीलिए आपने इसकी बात सच मान ली... लेकिन आपको क्या पता कि यह भाई नहीं दुश्मन है... जब तक वह जिंदा रहे, ये लोग हमसे जलते रहे, और अब वह मर गए तो ये मकान पर कब्जा करने के लिए मुझे भी फंसा देना चाहते हैं... मेरे ऊपर मेहरबानी कीजिए इंस्पेक्टर साहब...आप भी बाल-बच्चेदार आदमी हैं... मेरे पति के हत्यारे को पकड़ने के बजाय उलटे मुझे परेशान मत कीजिए...”
शुक्ला के रोने-गिड़गिड़ाने का पुलिस पर कोई असर नहीं हुआ, पुलिस उसे गिरफ्तार कर थाने उठा लायी। बहुत घुमा-फिराकर पूछने के बावजूद शुक्ला बड़ी होशियारी से अपना जुर्म छुपाने की कोशिश करती रही, खीझकर पुलिस उपाधीक्षक राजीव रंजन ने थानाप्रभारी जयराम प्रसाद ने कहा, “यह मार खाए बिना कुछ नहीं बताएंगी एक महिला सिपाही को यहां भेज दीजिए। अभी चार बेंत लगाएगी तो यह खुद ही बोलने लगेगी।”
थाना प्रभारी जयराम प्रसाद उनका संकेत समझते ही बाहर निकल गए। पुलिस उपाधीक्षक राजीव रंजन ने शुक्ला पर मनोवैज्ञानिक दबाव डालना शुरू किया, “देखो पुलिस बड़े-बड़े अपराधियों के भी पेट से भेद उगलवा लिया करती है। बेकार दुगर्ति कराने से कोई फायदा नहीं, भलाई इसी में है कि सीधे-सीधे सच्ची बात बता दो... “
“मैं सच ही बता रही हूं, साहब।
“झूठ बोल रही हो तुम...मियां-बीवी का झगड़ा पूरा मोहल्ला सुनता था...”
“शराबी-कबाबी आदमी के साथ रहने पर यह तो होगा ही साहब, दारू पीने के बाद वह अपने आप में तो रहता नहीं था। नशे में गला फाड़-फाड़कर चिल्लाता था तो सब सुनते थे...।”
 तत्कालीन डीएसपी संगीता कुमारी
बहरहाल पुलिस की पूछताछ में शुक्ला टूट गयी और अपना अपराद्द स्वीकार कर लिया। विवेचना के दौरान पुलिस को पता चला कि पार्थो के सहयोग से शुक्ला ने अपने पति का गला घोंटकर हत्या किया है, तब पुलिस ने पार्थो बनर्जी को भी गिरफ्तार कर शुक्ला सरकार के साथ उसे भी अदालत में प्रस्तुत कर दिया। जहां से दोनों को न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया गया।
पुलिस अनुसंद्दान में यह बात सामने आई थी कि घटना की रात पार्थो बनर्जी समीर सरकार के घर पहुंचने के पहले ही उसके यहां आकर छिप गया था। फिर रात में समीर सरकार आकर सो गए, तब शुक्ला के संकेत करते ही वह दबे पांव बिस्तर के पास पहुंच कर समीर सरकार के मुंह पर तकिया रखकर दबाने लगा। दम घुटने पर समीर सरकार छटपटाया तो जरूर, मगर पार्थो और शुक्ला ने उन्हें बुरी तरह भींच रखा था। आखिर थोड़ी देर बाद समीर सरकार निढाल हो गया, तब पूरे जोर से उसका गला भी दबा दिया गया ताकि जीवित बचने की कोई गुंजाइश न रह जाए।
अंततः विवेचना पूरी कर पुलिस ने शुक्ला सरकार व उसके कथित प्रेमी पार्थो बनर्जी के खिलाफ आरोप पत्र अदालत में प्रस्तुत कर दिया। फिर शुरू हुआ अदालती कार्यवाहियों का सिलसिला। लगभग 19 महीने चली इस मामले की सुनवाई के दौरान कुल 10 लोगों की गवाहियां हुई, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण गवाह मृतक समीर सरकार का बेटा अभिषेक था। किसी भी गवाह ने पार्थो बनर्जी को घटना की रात समीर के घर आते नहीं देखा था।
अंततः मामले की सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों की जोरदार दलीले सुनने के बाद 13 मई 2008 को फास्ट ट्रैक कोर्ट के विद्वान न्यायाधीश ने बिरसापुर के चर्चित समीर सरकार हत्याकाण्ड में समीर की पत्नी शुक्ला सरकार को दोसी करार देते हुए उम्र कैद की सजा के साथ ही दस हजार रूपए का जुर्माना भी लगाया। जुर्माना की राशि जमा न करने पर एक वर्ष की और सजा अदा काटने की सजा सुनाया। जबकि शुक्ला सरकार के कथित प्रेमी पार्थो बनर्जी को पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में बाइज्जत बरी कर दिया।
अब शुक्ला सरकार तो जेल में अपने कर्मो की सजा भुगत रही हैं, लेकिन उनका इकलौता बच्चा अभिषेक मां-बाप के कर्मों की सजा भुगतने को मजबूर है। मां का कसूर यह था कि बेलगाम घोड़ी की तरह इधर-उधर जिस-तिस की बांहों में उछलती फिरती थी,  बाप का गुनाह इतना था कि वह अपनी पत्नी के बहकते कदमों पर अंकुश लगाने की कोशिश की तो मारा गया, मगर बेटे का क्या कसूर था? अब कौन उसका पालन हार होगा?
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07 April, 2013

'तू मेरी न हुई तो'

प्रतीक चित्र
रिपोर्ट : ताराचंद विश्वकर्मा 
मधू उम्र के 17वें पड़ाव पर पहुंच गई थी। उसका निखरता हुआ शरीर इस बात की सूचना दे रहा था कि वह जवानी की दहलीज में कदम रख चुकी है। यूं तो खूबसूरती उसे कुदरत ने जन्म से ही तोहफे में बख्शी थी, लेकिन अब जब उसने लड़कपन के पड़ाव को पार कर यौवन की बहार में कदम रखा तो खूबसूरती संभाले नहीं सम्भल रही थी।
मधू, जितना प्यारा नाम था। उतना ही खूबसूरत चेहरा भी था। गोरा रंग होने के साथ-साथ उसके चेहरे पर एक अजीब सी कशिश थी। वह मुस्कराती तो लगता जैसे गुलाब का फूल सूरज की पहली किरण से मिलते हुए मुस्करा रहा है। अक्सर उसकी सहेलियां इस पर उसे टोक देतीं, ‘‘ऐसे मत मुस्कराया कर मधू, अगर किसी मनचले भंवरे ने देख लिया तो बेचारा जान से चला जाएगा।’’ वह मुस्करा कर रह जाती थी।
मधू खूबसूरत तो थी ही, साथ ही अच्छे संस्कार उसकी नस-नस में बसे थे। उसका व्यवहार कुशल होना, आधुनिकता और हंसमुख स्वभाव उसकी खूबसूरती पर चांद की तरह थे। जो किसी को भी उसका दीवाना बना देती थी। हसमुख होने के कारण वह सहज लोगों के आकर्षण का केन्द्र बन जाया करती थी।
सत्रह बसन्त पार कर लेने के बाद अब मधू उम्र के उस नाजुक दौर में पहुंच चुकी थी, जहां युवतियों के दिल की जवान होती उमंगे, मोहब्बत के आसमान पर बिना नतीजा सोचे उड़ जाना चाहती है। ऐसी ही हसरतें मधू के दिल में भी कुचांले भरने लगी थी, पर उम्र के इस पायदान पर खड़ी मधू ने अभी तक किसी की तरफ नजर भरकर देखा तक नही था।
मधू मूलरूप से बिहार प्रांत के मुजफ्रफरपुर जिले के काजी मुहम्मदपुर थाना अन्तर्गत पंखाटोली मुहल्ला निवासी थी। उसके पिता की मौत हो चुकी है। परिवार में उसकी विधवा मां कुमकुम देवी के अलावा एक भाई व कुल पांच बहनें हैं। बहनों के क्रम में मधू चौथे नंबर पर थी। तीन बहनों की शादी हो चुकी हैं। आज वह सब अपने-अपने परिजनों के साथ हंसी-खुसी जीवन गुजार रही हैं।
यूं तो मधू बचपन से ही महत्वाकांक्षी थी। लिहाजा वह पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ वह घर का काम-काज भी मेहनत और लगन से किया करती थी। पिता का साया सर पर न होने के बाबजूद भी उसने अपनी मेहनत से बीए पास किया था। बाद में जब आगे न पढ़ पायी तो अघोरिया बाजार स्थित एक स्कूल में शिक्षिका की नौकरी कर ली। यहीं पर उसकी मुलाकात दिनेश कुमार भगत से हुई।
दिनेश बिहार के सीतामढ़ी जिला अन्तर्गत बेलसंड थाना क्षेत्र के सरैया गांव का रहने वाला है। मुजफ्फरपुर में वह पढ़कर कुछ बनने आया था। यहां वह मिठनपुरा थाना क्षेत्र के चंद्रशेखर भवन के समीप मकान में किराए पर रहता था। यहीं से उसने पीजी की पढ़ाई की। वह आगे पीएचडी करना चाहता था पर उसके घर वाले खर्च वहन करने में असर्मथ से लगने लगे। तब वह परिवार का कुछ बोझ हल्का करने के लिए अघोरिया बाजार स्थित उसी स्कूल में शिक्षक का काम करने लगा, जिसमें मधू शिक्षिका थी।
अभियुक्त दिनेश
स्कूल में पहली बार जब दिनेश ने मधू को देखा तो बस देखता ही रह गया। स्वजातीय होने के कारण जल्दी ही दोनों में जान पहचान हुई और फिर वह दोस्त बन गए।  धीरे-धीरे दिनेश कब मधू का दीवाना बन गया उसे खुद भी नहीं पता चला अब वह स्कूल से छुट्टी के बाद घर जाता तो उसे महसूस होता कि जैसे उसका चैन कही गुम हो गया हो । दिल की ध्ड़कन मीठे अंदाज से धड़कती महसूस होती थी,रात की नीद कोशो दूर चली गयी थी नीद आती भी तो सपनों में मधू की सूरत दिखाई देती थी।
दिनेश का उखड़ा-उखड़ा मूड देखकर उसका एक करीबी दोस्त बोला, ‘‘अरे जनाब लगता हैं तुम्हें किसी से इश्क हो गया हैं। जरा मैं भी तो सुनू कौन है वो खुश नसीब’’
दिनेश उस वक्त किसी तरह टाल गया लेकिन उसे लगने लगा कि  उसका मित्र ठीक ही कह रहा था। उसका यह हाल तभी से हैं जबसे उसकी मुलाकात मधू से हुई थी । दिनेश ने मधू के आखों में चाहत का समुन्दर लहराता देखा था लेकिन वह मधू से एकदम से कहने का साहस नहीं जुटा पाया था न ही मधू की ओर से कोई पहल हुई थी हां इतना जरूर था दोनों का जब एक दूसरे से सामना होता तो मधू की आंखें हया के जोर से जरूर झुक जाया करती थी।
एक ही स्कूल में टीचर होने के कारण दोनों की मुलाकातें रोज ही हुआ करती थी। जब भी उनका सामना होता दिनेश की नजरें केवल मधू पर ही रहतीं। इध्र मधू भी इतनी कम अक्ल नही थी कि वह दिनेश की नजरों का भेद न पढ़ पती। वह उसके दिल की बात बखूबी समझती थी। दरअसल बन-संवरकर रहने बाले दिनेश का व्यक्तित्व उसे भी भा गया था। उसके दिल के किसी कोने में दिनेश के लिए चाहत पैदा हो गई थी।
मुहब्बत का बीज जब दोनों तरफ अंकुरित हो जाए तो फिर एक-दूसरे के करीब आने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। धीरे-धीरे मधू भी दिनेश से खुलती चली गई। एक दिन दिनेश ने उसे रेस्टोरेंट में चलकर चाय पीने का आग्रह किया तो अगले दिन चलने का वादा कर लिया।
अगले दिन मधू जब सज-धजकर स्कूल आई। इटंरबल में वह दिनेश से मिली तो वह उसे ठगा सा रह गया। मधू स्वर्ग से उतरी किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थी। दिनेश द्वारा अपने को अपलक निहारते देखकर मधू भी शरमा गई, ‘‘ऐसे क्या देख रहे हो। क्या अब से पहले कभी किसी लड़की को नही देखा?’’
‘‘मैं तुमसे झूठ नहीं बोलूंगा। मैंने लड़कियां तो बहुत सी देखी हैं, लेकिन उनमें तुम जैसी एक भी नहीं थी।’’
‘‘हटो! बनाओ मत...!’’ अपनी तरीफ सुनकर मधू का मन पुलकित हो उठा।
‘‘मेरा विश्वास करो मधू। तुम ही वो पहली लड़की हो, जिसने मेरे दिन का चौन और रात की नींद उड़ा दी है। सच कहता हूं कि अगर तुम मुझे नहीं मिली तो मैं तुम्हारी याद में तड़पते-तड़पते मर जाऊंगा।’’ दिनेश ने कहा तो मधू ने उसके मुंह पर अपनी उंगली रख दी। दिनेश उसके नरम हाथ को बहुत देर तक अपने हाथों में लिए बैठा रहा। फिर एकाएक बोला, ‘‘मधू, एक बात बताओ, तुम भी मुझसे प्यार करती हो न!’’
घटनास्थल पर जमा भीड़
‘‘तुम भी निरे बुद्धू हो। गर मैं तुमसे प्यार न करती तो तुमसे इस तरह बात करती’’ मधू ने अपने प्यार का इजहार करते हुए कहा।
दिनेश की खुशी का ठिकाना न रहा। उसने मधू का चेहरा हाथों में भरकर उसके माथे पर प्यार की मुहर लगा दी। मधू के पूरे जिस्म में सनसनी फैल गई। इसके बाद यूं ही स्कूल के अलावा भी दोनों के मुलाकातों का सिलसिला शुरू हो गया। दोनों एक-दूसरे को जी-जान से प्यार करने लगे और एक साथ शादी करके जिंदगी बिताने का सपना संजोने लगे। मधू व दिनेश अक्सर साथ-साथ ही रहा करते थे।
समय के साथ ही उनका प्रेम बढ़ता रहा। दिनेश अक्सर ही किसी-न-किसी बहाने मधू के घर भी आने-जाने लगा। मधू भी उसके इंतजार में पलके बिछाए रहती। दोनो मिलते तो सब कुछ भूलकर प्यार की रंगीन दुनिया में खो जाते। दिनेश को जब लगने लगा कि एक-दूजे के बिना दुनिया अधूरी है तो उसने स्कूल के शिक्षक साथियों से राय-मसवरा कर अपनी शादी का प्रस्ताव लेकर उन्हें मधू के घर भेज दिया।
पहले तो मधू की मां कुमकुम देवी इस शादी के लिए तैयार नहीं थी। जब उन लोगों ने काफी समझाया-बुझाया तो मधू की मां कुमकुम देवी तो तैयार हो गई, लेकिन अमित अब भी इस शादी के खिलाफ था। मां का वह विरोध् नहीं कर सकता था इसलिए वह कुछ नहीं कहा। परिवार वालों की रजामंदी के बाद मई 2007 में गायत्री मंदिर में सगुन की रस्म अदा की गई। उसके बाद 11 जुलाई को शादी होनी तय हो गई।
शादी की तारिख निश्चित होते ही दोनों तरफ जोर-शोर से तैयारियां की जाने लगी। अमित इस शादी के खिलाफ था। जल्द ही उसने अपने मामा व जीजा को अपनी तरफ मिलाकर मधू की शादी दिनेश से न करने के लिए मां पर दबाव डलवाने लगा। इसके बाद स्थिति ऐसी बनी कि दिनेश व मधू की शादी टूट गई और दोनों में मतभेद हो गया।
बताते हैं पहले भी दिनेश की दो बार शादी का रिश्ता टूट चुका था। मधू से तय शादी का रिश्ता टूटने के अवसाद से ग्रसित हो गया। उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर इतना प्यार करने वाली मधू ने उससे मुख क्यों मोड़ ली। उसने मधू से मिलकर उसे समझाने का भी प्रयास किया, पर बात नहीं बनी उल्टे मधू को तंग करने के आरोप में उसे स्कूल से निकाल दिया गया।
अगले दिन मधू अपने घर से स्कूल जाने के लिए निकली। वह घर से अभी कुछ ही दूर पहुंची थी कि अचानक दिनेश ने उसका रास्ता रोक लिया तो वह बौखला गई, ‘‘दिनेश, हमारा-तुम्हारा रिश्ता खत्म हो चुका है, मैं कितनी बार कह चुकी हूं, तुम मेरा पीछा करना बंद कर दो। आज के बाद मुझसे मिलने की कोशिश भी न करना।’’
मधु की माँ व बहन
‘‘अखिर बात क्या हो गई मधू? मुझे साफ-साफ बताओ क्यों तुम्हारे घर वाले हमारी शादी के खिलाफ क्यों हो गये हैं।’’
‘‘मैं कुछ नहीं जानती, तुम मेरा पहला प्यार थे। जानते हो पहला प्यार छूटता नहीं। कितनी मुश्किल से मैं तुम्हे भूल पाई हूं। यह तो मेरा दिल ही जानता हैं। तुम्हे भूलाने के लिए हफ्तों बेचैन रहीं। लेकिन अब मैं तुम्हारे चक्कर में किसी तरह नही आने वाली।’’ मधू अपने मन की वेदना ब्यक्त करते हुए दिनेश से बोली।
‘‘मधू मैं तुम्हे अपनी जान से ज्याद चाहता हूं। पहली ही मुलाकात में मुझे लगा कि मेरा-तुम्हारा संबंध जन्म-जन्मान्तर का है। पता नहीं किस आर्कषण के तहत उसी दिन से तुम मेरे मन मन्दिर में स्थापित हो गयी थी और उसी दिन से मैने तुम्हे अपने जीवन साथी के रूप में देखना शुरू कर दिया था। अब मुझे अपने से अलग मत करो। मैं तुम्हारे बगैर जी नही पाऊंगा।’’ दिनेश गिड़गिड़ाया।
‘‘मैं कुछ नहीं जानती, बस तुम मेरा पीछा करना छोड़ दो। मैं अपने परिवार के खिलाफ नहीं जा सकती।’’
‘‘मधू तुम कुछ भी कहो लेकिन तुम्हारा प्यार मेरे शरीर के जर्रे-जर्रे में समा चुका है। मैं वास्तव में तुम्हें अपनी जान से ज्यादा चाहता हूं। तुम भले ही पति के रूप में किसी अन्य व्यक्ति के विषय में सोचने लगी हो, लेकिन पत्नी के रूप में मैंने तुम्हें मान लिया है। जीवन पर्यन्त तुम्हें उसी रूप में मानता रहूंगा। रही बात शादी की, तो तुम्हारी शादी मेरे साथ हुई तो कोई बात नहीं, अन्यथा मैं तुम्हारी शादी अपने जीते जी किसी अन्य के साथ नहीं होने दूंगा। यह तुम्हें जुनूनी हद तक चाहने वाले आशिक का वादा है।’’ दिनेश काफी कुछ कह गया था।
‘‘बकबास बन्द करो। अब मैं तुम्हारी किसी धमकी में आने वाली नहीं हूं। भूल जाओं कि मधू नाम की कोई लड़की  तुम्हारे जीवन में कभी आयी भी थी। क्योंकि अब मैं किसी कीमत पर पलटकर तुम्हारे रास्तें में एक कदम भी नहीं रखूंगी।’’ यह कहकर वह चली गयी। दिनेश को एक बार भी पलट कर नहीं देखा।
दिनेश की स्थिति एक कटे हुए वृक्ष की भांति थी। वह मधू के मुंह से ऐसी नफरत भरी बातें सुनकर बुरी तरह बेचैन हो उठा। मधू जितना उससे मिलने से कतराती थी, दिनेश उतना ही बेचैन व उग्र होता जा रहा था। उसे अब भी आशा थी कि मधू प्यार के रास्ते पर वापस आ जाएगी। पर जब उसे यह अहसास हो गया कि मधू पूरी तरह बदल गई है और प्यार की आग को बुझाकर उसने धेखा दे दिया है, तो उसने एक भयानक निर्णय ले लिया।
एसपी रत्न संजय
29 अक्टूबर की सुबह मधू अपने घर से स्कूल जाने के लिए निकली। वह घर से अभी कुछ ही दूर पहुंची थी कि अचानक दिनेश ने उसका रास्ता रोक लिया तो वह बौखला गई, ‘‘कितनी बार कहना पड़ेगा कि मेरे रास्ते मत आया करो, अब हमारा तुमसे कोई संबंध नहीं है।’’
‘‘तुमसे आखिरी बार कह रहा हूं मधू! एक बार फिर सोच लो।’’ दिनेश गम्भीर हो उठा।
मधू बिना कोई जवाब दिए दिनेश के बगल से आगे बढ़ने लगी तो उसके सब्र का पैमाना छलक गया और तेजी से मुड़कर मधू को दबोच लिया। मधू अभी कुछ समझ पाती इससे पहले ही दिनेश ने झटके से छिपाकर लाए चाकू से उसका गला रेत दिया। मधू के मुख से एक दर्दनाक चीख निकल गई। महिला की दर्दनाक चीख सुनकर आस-पास के लोग उठे। लोगों ने देखा एक युवक युवती का बीच सड़क पर गला रेत रहा है। यह देखते ही घटनास्थल की तरफ एक कई लोग दौड़ पड़े।
अपनी तरफ एक साथ कई लोगों को बढ़ता देख दिनेश जैसे नींद से जागा और मधू को छोड़कर फरार हो गया। कुछ लोगों ने दिनेश का पीछा भी किया पर वह किसी के हाथ नहीं आया। इध्र कुछ लोगों ने सड़क पर तड़प रही युवती को पहचान लिया। पलक झपकते ही घटना की सूचना मधू के घर वालों को मिली तो वह घटनास्थल पर आ गए। अभी भी मधू सड़क पर तड़प रही थी। आनन-पफानन में इलाज के लिए उसे एसकेएमसीएच ले जाया जाने लगा, लेकिन अस्पताल पहुँचने से पहले ही उसकी मौत हो गई।
दिन दहाड़े मधू की हत्या की जानकारी होते ही स्थानीय लोगों का आक्रोश भड़क उठा। लोग हत्यारे की गिरफ्तारी की मांग करते हुए कलमबाग चौक पर बांस-बल्ला लगाकर सड़क जाम कर दिया और टायर जलाकर प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी करने लगे। इसी बीच पुलिस ने मधू के शव को कब्जे में लेकर पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया।
इधर मधू का गला रेतने के बाद फरार हुआ दिनेश भीड़ से बचने के लिए सीधे मिठनापुर थाने पहुंचा और पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। पूछताछ के दौरान अपना अपराध स्वीकार करते हुए दिनेश ने पुलिस को बताया कि मधू उसकी प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ कर रही थी। इससे आक्रोशित होकर उसने मधू की हत्या कर दी। अपने बयान में उसने बताया कि उसने बाजार से चाकू खरीदाकर करवा चौथ के दिन हत्या करने की योजना बनायी थी।
सड़क जाम करने की जानकारी मिलते ही काजी मुहम्मदपुर थाने की पुलिस मौके पर पहूँची, लेकिन स्थिति अनियंत्रित होते देख थाना प्रभारी ने तत्काल इसकी जानकारी एसपी रत्न संजय व एएसपी क्षत्रणील सिंह को दे दी। मौके की नजाकत को समझते हुए एसपी रत्न संजय व एएसपी क्षत्रणील सिंह आनन-पफानन में कई थानों की पुलिस व वज्रवाहन के साथ मौके पर आ गए। एसपी रत्न संजय ने लोगों को बताया कि हत्यारे ने आत्मसमर्पण कर दिया है, पर लोगों ने इसे पुलिसिया झांसा मानते हुए सड़क जाम नहीं हटाया। तब जाम हटाने के लिए पुलिस को हल्का बल प्रयोग करना पड़ा। तब  जाकर भीड़ तितर-बितर हुई।
दिनेश को पुलिस हिरासत में मिठनापुर थाने से काजी मुहम्मदपुर थाने लाया गया। यहां भी पुलिस ने उससे व्यापक पूछताछ की। पुलिस ने मधू के परिजनों से भी पूछताछ किया तो पता चला कि दिनेश मधू को धमकी भरा एसएमएस भी भेजा था। पूछताछ के बाद पुलिस मधू की हत्या के आरोप दिनेश को नामजद करते हुए प्राथमिकी दर्ज कर दिनेश को लाकप में बंदकर दिया।
अंततः सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद 30 अक्टूबर 2007 को पुलिस ने दिनेश को अदालत में प्रस्तुत कर दिया। जहां से चौदह दिनों की न्यायिक अभिरक्षा उसे जेल दिया गया। कथा संकलित किए जाने तक पता चला है कि विवेचना के दौरान पुलिस ने मधू के परिजनों के अलावा स्कूल के उपप्राचार्य सहित कुछ अन्य लोगों से पूछताछ करने के अलावा दिनेश के मोबाइल नंबर की जांच पड़ताल में जुटी थी।
(कथा पुलिस एवं मीडिया सूत्रों पर आधरित है।) 
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ले डूबी ख्वाहिशें


प्रतीक चित्र

कविता खूबसूरती और आकर्षण से भरपूर 18 वर्षीय पूर्ण नवयौवना युवती थी। जवानी के भार से लदी-फदी कविता की हर अदा निराली थी। हर कदम कयामत था, हर निगाह कातिल थी। देखने वालों के दिल की धड़कनें थम जाती थीं। निगाहें हटने का नाम न लें ऐसी ही थी कविता। वह जमशेदपुर (टाटा नगर) में अपने माता-पिता व तीन भाइयों के साथ जैसे-तैसे जिन्दगी गुजार रही थी। पिता सोबरन दिहाड़ी मजदूर थे, लिहाजा घर की आर्थिक स्थिति बेहद जर्जर थी। कभी-कभी तो पफांकों तक की नौबत आ जाती थी। छह लोगों का परिवार कमाने वाला सिर्पफ एक वह भी दिहाड़ी मजदूर, कभी काम मिला तो कभी नहीं मिला, ऐसे में घर की स्थिति दिनों दिन बिगड़ती ही जा रही थी।
परिवार में कविता ही बड़ी थी। अतः मां-बाप उसकी शादी की चिंता में डूबे हुए थे। गरीब मां-बाप के लिए बेटी की शादी वाकई एक अहम समस्या होती है जो बेटी की उम्र बढ़ने के साथ-साथ ही बढ़ती जाती है। परिजन उसकी शादी की चिन्ता से परेशान और वह अपने भविष्य को लेकर उलझन में थी, हर तरफ उसे अंधकार नजर आ रहा था। बावजूद इसके उसकी महत्वकांक्षाएं प्रबल थीं। गरीबी से उसे नफरत थी। वह अक्सर अमीरी के ही ख्वाब देखा करती थी, किन्तु इन ख्वाबों को पूरा करने का साधन उसे दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा था। लिहाजा उसकी उलझन दिनों दिन बढ़ती ही जा रही थी।
मां-बाप उसके लिए लड़का तलाश रहे थे और वह अपने सपनों का राजकुमार तलाश रही थी। ऐसे में एक दिन उसकी निगाह गांव के ही रामकुमार से जा टकराई। रामकुमार दिल्ली में नौकरी करता था और उन दिनों छुट्टी आया हुआ था। रामकुमार उसे अपना सपनों का राजकुमार लगा और वह बरबस ही उसकी ओर खिंचती चली गई। रामकुमार करता तो दिल्ली में कंडक्टरी करता था, किन्तु गांव में खूब बन-ठन कर घूमता था जिससे सभी को लगता कि वह खूब पैसा कमाता होगा। कविता को लगा रामकुमार उसे जीवन की वह सारी खुशियां दे सकता है जिसके ख्वाब उसके दिल में मचल रहे थे। अतः उसने रामकुमार को मीठी निगाहों से देखना शुरू कर दिया। रामकुमार ने भी जब खूबसूरत और भरे-पूरे बदन वाली कमसिन कविता को देखा तो पहली ही नजर में उसे दिल दे बैठा था, मगर सिवाय उसके घर का चक्कर लगाने के और कुछ नहीं कर पा रहा था। मगर जब उसने कविता को खुद में इंटरेस्ट लेते देखा तो मारे खुशी के झूम उठा और कुछ दिन बाद ही एक रोज गली से गुजरती कविता को उसने हौले से पुकार लिया,
"कविता।”
"हूँ....!” कविता के पांव जहां के तहां ठिठक गये। शरीर में सनसनाहट सी हुई, मन का चोर उसके शरीर को गुदगुदाने लगा। एक साथ कई प्रश्न उसके मस्तिष्क में कौंध उठे, क्यों रोका रामकुमार ने क्या कहना चाहता है वो, कहीं उसने उसकी चोरी तो नहीं पकड़ ली।
रामकुमार उसके करीब आ गया।
"कविता मुझे तुमसे एक जरूरी बात करनी है किन्तु गली में खड़े होकर बातें करना ठीक नहीं है कभी भी कोई  भी आ सकता है। मैं तुम्हारा शाम 7 बजे तुम्हारे घर के पीछे इंतजार करूंगा आना जरूर, ये मेरी जिन्दगी और मौत का सवाल है।”
इतनी बात सुनने के पश्चात कविता बिना जवाब दिए आगे बढ़ गई। उसे मालूम था रामकुमार उससे क्या कहेगा, अतः आने वाले हसीन पलों के बारे में सोचकर वह हवा में उड़ी जा रही थी उसके कदम जमीन पर पड़ने से इंकार कर रहे थे। घर पहुंचकर वह काम-काज में लग गई, मगर कानों में रामकुमार के वाक्य ही गूंज रहे थे। मारे उत्कंठा के उसका बुरा हाल था। वह बार-बार घड़ी की तरफ देख लेती थी। अभी तो महज 5 ही बजे थे। तीन घंटे का लम्बा इंतजार उफ! समय बीतने का नाम ही नहीं ले रहा था। आज कविता का किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था, वह जितनी जल्दी हो सके, रामकुमार से मिलकर उसके मुंह से प्यार के दो मीठे बोल सुन लेना चाहती थी।
पुलिस हिरासत में कालगर्ल
आखिरकार इंतजार की घड़ियां खत्म हुईं। निर्धारित वक्त पर वह अपने घर के पिछवाड़े पहुंची, वहां एक साया पहले से ही टहलता दिखाई दिया। कविता के पहुंचते ही साया उसके एकदम करीब आ गया। कविता ने घने अंधेरे में भी उसे स्पष्ट पहचाना, वह रामकुमार ही था।
ओह कविता तुम आ गई!” रामकुमार आकुल स्वर में बोला।
नहीं जनाब ये तो मेरा भूत है।” कहकर वह हौले से हंसी, रामकुमार भी हंस पड़ा।
अब फटाफट बोलो, क्यों बुलाया मुझे यहां, जानते हो अगर इस वक्त मुझे कोई तुम्हारे साथ देख ले तो मेरी कितनी बदनामी होगी और कहीं बाबूजी को पता चल गया तो वे तो मुझे काटकर फेंक देंगे।”
जनता हूं कविता मगर क्या करूं दिल के हाथों मजबूर था इसलिए दिल की बात कहने के लिए ही तुम्हें यहां बुलाया है।”
तो फिर कह डालो, इंतजार किस बात का कर रहे हो?
"सोचता हूं कहीं तुम बुरा न मान जाओ।”
निरे बुद्धू हो तुम, अरे अगर तुम्हारी बात का बुरा ही मानना होता तो मैं रात के समय यहां आती ही क्यों?
बात रामकुमार की समझ में आ गई। उसने बगैर एक और पल गंवाए कविता के आगे अपना दिल खोल कर रख दिया और उसका हाथ थामकर यह सौंगंध खाई कि वह आजीवन कविता का साथ निभाएगा। कविता तो इसी पल का इंतजार कर रही थी। उसने झट रामकुमार का प्यार कबूल लिया। काफी देर तक दोनों एक-दूजे का हाथ थामें प्यार भरी बातें करते रहे, फिर 9 बज गये तो दोनों अपनी-अपनी राह हो लिए।
उस दिन के बाद कविता के जीवन में ढेरों बदलाव आने शुरू हो गये। अब वह बन-संवर कर रहने लगे, अच्छे कपड़े पहनने लगी, सौंदर्य प्रसाधन इस्तेमाल करने लगी और इन सबका सारा खर्चा रामकुमार उठाता। कविता की मां आंचल देवी जब उससे पूछती की ये सब सामान उसके पास कहां से आये तो वह सहेलियों का बहाना बना देती। दोनों का प्रेम परवान चढ़ता गया। दूरियां सिमटती गईं। नजदीकियों का फांसला समाप्त होता गया। दोनों करीब हर रोज मिल लिया करते थे। बातें करते, खाते-पीते, घूमते और एक दिन तो रामकुमार उसे सिनेमा भी दिखा लाया। इसी तरह हंसी-खुशी दिन गुजर रहे थे। देखते ही देखते दो महीना गुजर गया। रामकुमार की जमा पूंजी समाप्त हो चुकी थी। अब प्रेमिका के नखरे उठाने के लिए जरूरी था कि वह दिल्ली चला जाये, अतः एक रोज रात के वक्त कविता से मुलाकात होने पर वह बोला, "कविता मैं कल दिल्ली जा रहा हूं।”
पुलिस हिरासत में ग्राहक
अरे तुम ऐसा कैसे कर सकते हो, हमारे प्यार का क्या होगा? तुमने जो वादे किये थे उनका क्या होगा?
पगली कहीं की, मैं हमेशा के लिये थोड़े ही जा रहा हूं बस महीने-डेढ़ महीने बाद वापस लौटूंगा और फिर हमेशा-हमेशा के लिए तुम्हें अपने साथ ले जाऊंगा।”
तुम सच कह रहे हो?” कविता की आंखों में संदेह उतर आया, फ्कहीं तुम मुझसे पीछा तो नहीं छुड़ाना चाहते?
कैसी बातें करती हो कविता भला कोई अपनी जान को जिस्म से अलग कर सकता है, मैं जरूर वापस आऊंगा और आकर तुम्हें ले जाऊंगा, तुम मेरा इंतजार करना।”
कहने के पश्चात उसने कविता को अपने सीने से लगा लिया। कविता हौले से सिसक उठी। प्रिय से बिछुड़ना यकीनन बेहद कठिन होता है फिर वे तो दो जिस्म एक जान थे।
रामकुमार दिल्ली चला गया और पीछे कविता को पूरा गांव, गांव के लोग और गांव की गलियां सूनी-सूनी सी प्रतीत होती थी। रामकुमार की जुदाई उसे बर्दाश्त नहीं हो पा रही थी। ऊपर से रामकुमार की मौजूदगी में उसे जिस शाहखर्ची की आदत पड़ गई थी, अब उसे पूरा करना संभव नहीं था। उसे पैसे की कमी अखरने लगी। रामकुमार की गैरमौजूदगी खलने लगी और जब पहले जैसी मुफलसी का सामना करना पड़ा तो उसके कदम भटक गये। देखते ही देखते उसके दिल से रामकुमार गायब हो गया। अब वह रामकुमार का विकल्प तलाशने लगी। ऐसे में उसे गांव का ही एक सजीला दौलतमंद किंतु अय्यास और आवारा युवक संजय पसंद आ गया, जल्द ही दोनों में गहरी छनने लगी। संजय ने भी कविता से ढेरों प्यार-मोहब्बत के वादे किए और एक दिन उसे घुमाने के उद्देश्य से गांव से बहुत दूर ले गया। वहां एक लाँज में कमरा बुक कराकर वह कविता के साथ शिफ्ताट हो गया।
कविता रामकुमार के साथ कई बार एकांत में वक्त गुजार चुकी थी, मगर उसने कभी मर्यादा का उलंघन नहीं किया था। अतः कविता आने वाले मुश्किल भरे पलों से बेपरवाह थी। उसे नहीं मालूम था कि संजय किस फिराक में है, वरना शायद वह आती ही नहीं। फिर उसकी निगाहों में प्यार का मतलब था-घूमना-फिरना, फिल्म देखना, मीठी-मीठी बातें करना, हंसी-मजाक करना, इससे आगे तो उसने कुछ सोचा ही नहीं था। मगर आज...
डीएसपी पीसीआरए संगीता कुमारी
कमरे में घूसते ही संजय बोतल खोलकर बैठ गया। कविता यह जानकर हैरान रह गई कि उसका नया प्रेमी शराब भी पीता है। मगर आगे जो कुछ हुआ वह शराब पीने से भी ज्यादा हैरानी थी और कष्टप्रद बात थी।
शराब के दो बड़े पैग हलक में उतारने के बाद संजय ने कविता को दबोच लिया और उसके तमाम विरोध के बावजूद उसने कविता को निर्वस्त्र कर बेड पर पटक दिया। कविता उसके नीचे से निकलने को छटपटाती रही और वह उस पर छाता चला गया। कमरे में एक तूफान आया और गुजर गया। संजय के मन की मुराद पूरी हो गई। उसने एक कुँवारी लड़की के यौवन को भोगा था और कविता की अस्मत तार-तार हो गई, वह रो रही थी। मगर यह आंसू ज्यादा देर तक बने न रह सके। संजय द्वारा दिये गये तीन सौ रुपयों ने उन आंसुओं को धो डाला था।
इसके बाद तो यह सिलसिला ही चल निकला, वह आए-दिन संजय का बिस्तर गरम करती और संजय उसे तीन सौ रुपये पकड़ा देता। कविता को इस काम में मजा आने लगा। देखते ही देखते उसने गांव के ही कुछ अन्य युवकों से भी संबंध जोड़ लिए और अप्रत्यक्ष रूप से जिस्मफरोशी करने लगी। धीरे-धीरे गांव भर में उसका नाम उछलने लगा, तब जाकर मां-बाप की नींद खुली और पता लगा कि उनकी बेटी क्या गुल खिला रही है, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
इसी दौरान रामकुमार कविता को लेने गांव आया, मगर उसने उसके साथ जाने से स्पष्ट इंकार कर दिया। रामकुमार का दिल टूट गया, उसने कविता से सच्ची मोहब्बत की थी और अब कविता उसे दगा दे रही थी क्यों? यह बात जल्दी ही उसकी समझ में आ गई। उसने कविता को समझाने की बहुतेरी कोशिश की, मगर वह ना तो वापसी के लिए राजी हुई ना ही रामकुमार के साथ जाने को राजी हुई।
रामकुमार हारकर वापस लौट गया और जाते-जाते कह गया, "मैं जानता हूं कविता तुम ऐसी नहीं थी गलती मेरी है जो मैं तुम्हें साथ लेकर नहीं गया। मैं वापस दिल्ली जा रहा हूं। किन्तु मेरे दिल और घर के दरवाजे तुम्हारे लिए सदैव खुले हैं जब चाहो वापस लौट सकती हो।”
रामकुमार चला गया, कविता अपनी राह चलती रही। पिता ने आनन-फानन में उसके लिए रिश्ता ढूंढा और ह्यून पाइप बस्ती के राजेश के साथ उसकी शादी कर दी। कविता को राजेश जरा भी पसंद नहीं था किंतु उसने एक बार भी शादी का विरोध नहीं किया और दुल्हन बनकर राजेश के घर आ गई। राजेश की माली हालत बेहतर नहीं थी, मगर दो जून की रोटी की कोई किल्लत नहीं थी, पर कविता को अब तक दौलत का चस्का लग चुका था। वह भला दो जून की रोटी पाकर कैसे संतुष्ट हो जाती, लिहाजा यहां भी उसने पुरानी कहानी दोहरानी शुरू कर दी और आस-पास के कई युवकों से सम्पर्क बनाकर उनकी जवानी और दौलत चूसने लगी। उसके रूप के रसिया बहुत लोग थे, लिहाजा वह दोनों हाथों से पैसे बटोरने लगी। पति राजेश को जब उसके कारनामों का पता चला तो वह हैरान रह गया। उसकी खूबसूरत बीवी ऐसा भी कर सकती है यह तो उसने सोचा ही नहीं था। उसने पहले तो कविता को समझाने की कोशिश की, फिर धमकाया। इसके बाद भी वो रास्ते पर नहीं आई तो उसकी पिटाई भी कर दी, किंतु कविता फिर भी नहीं सुधरी। इसके बाद तो जैसे दोनों के बीच एक मूक समझौता हो गया और एक दिन वह भी आया जब पति राजेश काम-धंधा छोड़कर बीवी की दलाली करने लगा, उसके लिए ग्राहक तलाशने लगा।
एसपी नवीन कुमार सिंह
जिस्मफरोशी के इस धंधे ने कविता को नित नये लोगों के बीच खड़ा कर दिया। वह हर रात नये तरीके से सजती नई दुल्हन बनती और नये खसम का बिस्तर गरम करती। यही उसकी जिन्दगी थी। वह दोनों हाथों से दौलत बटोर रही थी। पति भी अब तक पत्नी की कमाई खाने का आदी हो चुका था।
धंधे के दौरान ही कविता की मुलाकात रीता से हुई और वे दोनों मिलकर ना सिर्फ धंधा करने लगी, बल्कि अन्य लड़कियों को भी धंधे से जोड़ने लगीं। कई दलालों से भी उनके सम्पर्क हो गये।
कविता रीता की तरह गरीबी की मारी कोई युवती नहीं थी। वह एक मध्यवर्गीय परिवार की बेहद महत्वाकांक्षी युवती थी जो जल्द से जल्द दौलत के अम्बार लगा देना चाहती थी। कविता की उम्र 30 वर्ष हो चुकी थी जबकि रीता अभी महज 20 की कमसिन युवती थी। दोनों मिलकर धंधा कर रही थीं। इसी दौरान उनकी मुलाकात जमशेदपुर के पटमदा थाना क्षेत्रा स्थित डिमना रिर्सोट के मालिक विजेन्द्र सिंह से हुई जो कि अपने मैनेजर अखिलेश सिंह के जरिए अपने ग्राहकों को काँलगर्ल मुहैया करवाता था। विजेन्द्र की मुलाकात कविता व रीता से हुई तो उसने दोनों को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वह उसके बुलावे पर रिर्सोट में ठहरने वाले ग्राहकों को संतुष्ट कर दिया करें, जिसके बदले दोनों को अच्छी आमदनी हो जायेगी। दोनों को स्थाई ठिकाना मिल रहा था, अतः उन्होंने फौरन हामी भर दी। अब वे दोनों रिर्सोट के मैनेजर अखिलेश के बुलावे पर वहां पहुंच जाती और कस्टमर को निपटा देतीं। इस तरह यह धंधा बेहद गोपनीय तरीके से बेरोक-टोक चल रहा था। मगर पुरानी कहावत है बकरे की मां कब तक खैर मनायेगी?
27 अक्टूबर को एसपी नवीन कुमार सिंह को गुप्त सूचना मिली थी कि एमजीएम से डिमना लेक की ओर जाने वाली मार्ग स्थित अलकतरा फैक्टरी से कुछ आगे एक रिर्सोट है। जहां सेक्स रैकेट का संचालन होता है। इस सूचना पर एसपी ने डीएसपी सुभाष चंद्र शर्मा, डीएसपी पीसीआरए संगीता कुमारी, एमजीएम, पटमदा प्रभारी एवं एमजीएम सर्किल इंस्पेक्टर की टीम गठित की और 28 अक्टूबर को शाम पांच बजे के करीब पुलिस ने रिर्सोट पर धावा बोला। जहां एक कमरे में एक युवती व दो युवक रंगरेलियां मनाते मिले तथा दूसरे कमरे में एक युवक और युवती आपत्तिजनक अवस्था में मिले। पुलिस ने इस छापामारी में दो युवतियों समेत कुल छह लोगों को हिरासत में लिया। गिरफ्तार लोगों में एलआइसी का डेवलमेंट आफिसर, टिनप्लेट का इंजीनियर और एयरकंडीशन मैकेनिक और होटल का बेरा शामिल है। इसके अलावा पुलिस ने चार सेट फोन अंग्रेजी शराब की बोतले, इस्तेमालशुदा कंडोम, शृंगार प्रसाधन तथा कुछ अन्य आपत्तिजनक वस्तुएं जप्त कर लीं।
एमजीएम अंचल के इंस्पेक्टर अनुप हेम्ब्रम के बयान पर पुलिस ने रिर्सोट के मैनेजर और मालिक समेत आठ लोगों के खिलाफ देह-व्यापार अधिनियम 3, 4, 5 और एक्सरसाइज एक्ट की धारा 47(ए) के तहत मामला दर्ज करके विवेचना शुरू कर दी।
कथा लिखे जाने तक रिर्सोट के मैनेजर व मालिक फरार थे जबकि अन्य छह आरोपियों को जेल भेजा जा चुका था।
(कथा पुलिस सूत्रों के अनुसार, वैधानिक कारणों से कथा में कुछ पात्रों के नाम परिवर्तित हैं।)
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